Saturday 13 November 2010

रात की और सुबह की ...


रात के कुछ पल बीते ही थे कि सुबह की दस्तक आ गयी,
आँखों में कटी  या साँसों में , रात तो सुबह में घुल गयी | 

पर अब तक रात खामोश सी थी , सुबह का शोर सुनने को,
ये रात मदहोश ही थी, सुबह तक होश होने को|
रात तो बस रात ही है, अँधेरा सिर्फ मन या रौशनी का नहीं,
सुबह पर सब कुछ है, सवेरा मन  का भी, सिर्फ रौशनी का ही नहीं|


ज्यूं रात बदल गयी है , सुबह में,
में भी बदल जाऊँगा अगले पल में|


ये रात सुबह  को बुलाती रहेगी, और सुबह दौड़ी चली आएगी,
पर कब तक सुबह , रात के अंत में समाएगी|


बस अब रात या सुबह नहीं रही,
जो रहा गया है , वो बस मन का ही |


अब चाहे इस पार देखो उस पार, ज्यूं ये चलता है ,
ये चलता ही रहेगा हर बार |


जब ख़्वाबों में बीती थी रातें , तो लगा की जागना ही मेरी नींद है,
अब जब सोचते ही गुजर गयी रात, तो उजाले में सोती एक नींद है|

चलता रहूँ, नींद और होश के दायरे में,
खोता और पता रहूँ, इसी दायरे में|

हाँ इन्ही दायरों में कहीं मुझे जाना है,  वहां जहां  कोई दायरा नहीं,
पर गर न भी पहुंचा, तो घुल जाऊँगा इसी रात में,
ये जानकर की रात भी तो सुबह का ही आगाज़ है|

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