Thursday 17 March 2011

रात की पहर

इतने सारे पलों में से, बिस्तर के कोने वाले पल ही उसके ख़ास थे| दूर से आती रेल की सीटी उसे एहसास दिलाती , की वो अभी भी दूर नहीं है दुनिया से, लोगों से, जैसे की बस इक दिन वो रेल गाडी आके उसे उठा के चली जाएगी, और फिर वो आज़ाद होगा, इस डर से, इस जेल से | रात की बत्ती बंद होने पे वो खिड़की की पास जाके खड़ा हो जाता, उसकी जाली से छन के आती हुई उम्मीद की रौशनी में खुद को देखता, और जैसे ही किसी के आने की आहट होती, वापस अपने बिस्तर के कोंव में छुप जाता | आंसू से भीगे गालों को पोछता हुआ सोचता, "बस कल में चला जाऊँगा, आज मेरी आखरी रात है इस अँधेरे कुँए में|



पर आने वाला दिन तो अभी उसके सामने पहाड़ जैसा खड़ा था, और उससे भी पहले, ये रात, आज की रात, बीते नहीं बीत रही थी| इतनी सारी बातों में डूबा, फिर से आंसू  की बौछार आके उसके आँखों को डूबा गयी, और फिर  उसे माँ याद आई| ऐसा नहीं था की वो कभी भुला भी था उसे, पर अभी एक रथ पे सवार, प्यार का सौगात लिए, हजरों तस्वीरों की भाँती वो उसके सम्मुख आके खड़ी हो गयी.  वो क्या कहता? बस देखता  रहा , उसने कभी सोचा भी न था, की माँ को याद भी करना पड़ेगा, माँ तो जैसे बस उसके हाथों के मुट्ठी जैसी थी , जब चाहा मुट्ठी में बंद कर लिया, और आज वो मुट्ठी खाली थी| शायद उसने पहले ठीक से देखा न होगा, मुट्ठी हमेशा ही खाली थी |   इन ख्यालों में डूबा वो अचानक चौंका और  उसकी आँखें खुल गयी|  उसने एक चीख सुनी थी, शायद. कई दिनों से वो उसी चीख से लड़ रहा था, पर आज की रात वो चीख ज्यादा खौफनाक थी|

कांपते हुए हाथों से उसने, अपने बिस्तर के मुहाने वाली खिड़की के पल्ले को सरकाया. रात बियावान थी, इस सन्नाटे में , चीख और शांती में भला क्या फर्क था | पेड़ों की झुलाती, पत्ते को सरसराती हुई हवा, जब मैदान के बीचों बीच खड़े खम्भे के पास नृत्य करती, तो चीख और खामोशी के बीच की दीवार चरमरा जाती , और वो डरता हुआ, डर के सीने में झाँक रहा था| कितना डरावना था बाहर! मैदान पे सूखे पत्ते, मानो किसी का आदेश पाकर एक साथ कहीं भागे जा रहे थे, हैलोजेन बल्ब के पीली रौशनी में डूबे पत्ते अपनी चमक पे इतर रहे थे, और मैदान के आखरी छोड़ पे, वो विशालकाय वृक्ष  , अँधेरे को अपने अन्दर समेटे  हुआ खड़ा था | उसने गौर से देखा तो टहनियां उसके तरफ इशारा करते हुआ जोर जोर  से झूमने लगी, वो समझ नहीं पाया की वो पत्तों की छन छन थी , या उसकी पैरों की घुंघरू की खनक | वो हैलोजेन बल्ब, वो सनसनाती हवा सब मानो हतप्रभ होके बस उसे ही देख रही थी | कभी इस डाल त्यों कभी उस डाल, कभी झूमती तो कभी टहनी पे सरसराती हुई वो नीचे आ जाती| चांदनी में चना उसका बदन, दिखता और छुप सा जाता| कुछ होने और न होने का दायरा इतना छोटा सा, की किसपे यकीन करें वो पता ही नहीं| सब कुछ जी की एक प्यार में डूबा था, उसके प्यार में , जो उस वृक्ष की टहनियों पे अटखेलियाँ कर रही थी| वो भी खो गया, इस कदर की मानो, कोई सुन्दर सपना देख रहा हो| प्रेम और भय में कितना कम फर्क था, की जो भय उसके दिल को दहला रहा था, अब वोही प्रेम बनकर उसके ह्रदय में झूम रहा था|



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