Tuesday 14 September 2010

नौकरी में ही सब है!!

"नौकरी  में ही  सब  है ", जब  ये  शब्द  मेरे  कानों  पे  परे  तो  में  तिलमिला  उठा | इस  सत्य  को  तो  शायद मैं  भुला  ही  चुका  था , मानो  जैसे  ये  शब्द , सत्य  और  असत्य  की सीमा  से  परे  हो गए थे  , जैसे  कि  मेरा  अस्तित्व  इसी  सत्य  के  अन्दर  बसा  हुआ  है , और  मैं  इसकी  "सत्यता" पे  कभी  ऊँगली  उठा  ही  नहीं  सकता | पर  आगे  आने  वाले  शब्द  थे , "तुम  अभी  नहीं समझोगे ", मानो  जैसे  अंजली , राहुल  से  कह  रही  हो , "कुछ  कुछ  होता  है  राहुल , तुम  नहीं  समझोगे ". पर मैं  समझता  हूँ , कम  से  कम  समझने  का  दावा  तो  जरूर  करता  हूँ , वरना इस  निर्दयी  और  निमार्मिक  नौकरी  के  पीछे  दिन  रात  क्यूं  भागता | पर  शायद   में  उनकी  दृष्टि  से  नहीं  समझ  पा  रहा  था , क्यूंकि  विगत  शब्द  मेरे  बाबूजी  के  मुख से  निकले  थे |



"नौकरी  में  ही  सब  है ", उन्होंने  दुबारा  कहा , ये  सोचकर  कि  शायद  पहली  बार  जो  उनके  मुख  से  निकला  वो  मेरे  कानों  तक  पहुँचने  से  पहले  ही  विलीन  हो  गया  हो |  खैर , जब प्रसंग  छिर  ही  चुका  था , तो  मैंने  इस  अभय  सत्य  को एक बार फिर से  टटोलना  चाहा | पर  ये  प्रसंग  मुझे उस अफवाह की भाँती  ही लगा जो  एक बीती हुई पीढ़ी आने वाली पीढ़ी में फैलाती है|

"क्या  नौकरी  में  ही  सब  है ?" जाहिर  है  इसका  कोई  सीधा  जवाब  नहीं  मिलने  को  है |  पर  क्या  मैंने  ये  नहीं  सुना  है कि  "देश प्रेम  में  सब  है ", या , "कष्ट  में  सब  है ", या फिर,  "विजय  में  सब  है ", और सबसे ज्यादा कि, "परम  में  सब  है "| पर  ये " नौकरी"  , इसके  बारे  में  किसी  ने कभी   कुछ  नहीं  कहा | आखिरकर, इस  विश्व  की  एक  बड़ी  आबादी  "नौकरी " ही  करती  है |  दुनिया भर की वयवस्था और अर्थवय्वस्था इन्ही नौकरीपेशा लोगों पे टिकी है|  देश की उन्नति के लिए जिस माध्यम वर्ग के तरक्की की आवश्यकता है वो नौकरी पे ही आश्रित हैं |  यही नहीं, बड़े बड़े ज्ञानी पुरुषों ने भी नौकरी की है| aaeinst  ने  जब अपनी Relativity की  खोज की थी  वो  भी  नौकरी  कर  रहे  थे |  एमेनुएल  केंट  ने  जब  अपने  महानतम  कार्यों  की  रचना  की  तब  वो  प्रोफेस्सर  की  नौकरी  कर  रहे  थे , पर  उन्होंने , नौकरी  की  श्रेष्ठता एवं  जरूरत  के बारे में कभी कुछ नहीं कहा | क्या  नौकरी , अपने  आप  में  एक  तिरस्कृत  उपलब्धि  है ? जितना  मुश्किल  इसको  पाना  है ( कम से कम भारत जैसे देश में ) , उस  हिसाब  से  तो  ये  इंसान  की  सबसे  बड़ी  उपलब्धियों  में  से  एक  होनी चाहिए  थी , परन्तु , आज  तक  किसी  महापुरुष ने  इसकी  बड़ाई  नहीं  की |

यहाँ जो प्रसंग उठ खरा हुआ है, इसका कोई सीधा हल नहीं दिखता|  दिन रात, मेरे और आपके जैसे "नौकर" इस नौकरी की वास्तविकता को टटोलते रहते हैं| हज़ारों बार ये प्रश्न हमारे जहन में आता है कि , क्या वाकई में , "नौकरी में सब है"|
शायाद इसका कोई उत्तर है ही नहीं | अगर हमें जीवन यापन के लिए  पैसों की जरूरत है ( कम से कम , हमारे समाज में तो है ही), तो  उन पैसों का श्रोत क्या है?  सीधा और सरल सा उपाय! एक नौकरी|  क्या इस सत्य को झुठलाया जा सकता है?

पर तभी मेरे सोच ने मेरे दिल पे दस्तक दी| क्या मैं  इस संसार की बनायी हुई रश्मों और रिवाजों का बंधक हूँ? क्या अपनी जरूरतों को पूरा करना ही मनुष्य के जीवन की सार्थकता है?  क्या मनुष्य, इस सत्य से मुह फेर सकता है कि , उसकी जरूरत उसके सोच के अन्दर ही स्थित है, दुनिया के रिवाजों में नहीं|  क्या वो कभी झूठ का दामन थामे सत्य तक पहुँच सकता है? शायद नहीं| और , कहीं इन सवालों में ही मेरा उत्तर भी छिपा हुआ है|

बुद्ध ने नौकरी नहीं की, न ही महात्मा गाँधी ने, और न ही फ्योदोर दोएस्तोवेसकी  ने| क्या इन सब को वो "सब" नसीब न हुआ? ये प्रश्न उठाना ही  मुर्खता होगी| हालाँकि, इस तर्क का वितर्क डाला जा सकता है कि ये, इस श्रृष्टि के विशिष्ट पुरुषों में से एक थे, और उनका आत्मबल और उनकी चेतना इन सब बातों से काफी बड़ी थी, जबकि एक आम आदमी, इक आम ज़िन्दगी का हिस्सा होता है| वो एक आम ज़िन्दगी ही जीता है, और उसी आम ज़िन्दगी की आम जरूरतों और रिवाजों को पूरा करने में उसकी आम ज़िन्दगी समाप्त हो जाती है| वो जिसे शशि थरूर ने कहा था न, " कैटल क्लास"|  पर ये तर्क एक विकृत सा रूप है, वास्तविकता का|  क्या मैं भी एक आम इंसान हूँ? किसने बनायीं ये परिभाषा? जो ज्ञान और ज्योति मेरे अन्दर प्रज्ज्वलित है, वो आम कैसे हो सकती है? में तो स्वयं में ही संपूर्ण हूँ| मुझसे ये श्रृष्टि है, और इसी श्रृष्टि से मैं हूँ| इस पूरे संसार की मैं एक केंद्र बिंदु हूँ| जिस दिन मैंने  इस संसार को मानना छोड़ दिया, उस दिन ये सब नष्ट हो जाएगा| जब मेरी चेतना ही मुझे इस संसार का बोध करवाती है तो मेरी चेतना, अर्थात में स्वयं ही उस संसार का अंत भी हूँ| इसमें कौन सी बात आम है?

अब मैं  वापस, अपने मूल प्रश्न पे आता  हूँ, कि नौकरी मेरे लिए क्या है|  नौकरी, मेरे लिए एक साधन है, जिससे मैं, इस संसार में अपने अस्तित्व को बनाये रखता हूँ| ये मेरा अंत नहीं है, पर ये मेरा रास्ता जरूर है| जो भी चलता रहता है, वो सब इंसान को उसकी मंजिल के पास ले जाने के अलग अलग रास्ते हैं| रोजगार ये बेरोजगार, मेरा अस्तित्व हमेशा रहेगा| परन्तु, जो इंसान की राह है , और जो मेरी राह है, उसमें काफी हद तक, "नौकरी पे ही सब है", लेकिन, मेरा उच्च्श्रन्ख्ल मन, ये जानता है कि किसपे और किसमें सब है, और वो चीज़ नौकरी नहीं है|

6 comments:

Vineet said...

I think this topic needs wider discussion. "Service" can be considered as one must requirement for a middle class family for easy going life.
I am little confused as service is most of the time is not a passion but just a mean to earn money. Those who follow dreams go ahead of it and have also crossed this phase. Dr. Rajendra Pd, Jawahar lal too served government office. Bill Gates too started with a job and later moved to the success story that we read.

What I feel is this topic is too wide in terms of it's semantic.

Siddharth said...

Right! But it's the narrowness in understanding a job as everything, that I am not comfortable with. And I have discussed the points that you have pointed out.I feel a better understanding of the situation would do lot better for us, instead of a blind rush.

Anonymous said...

Yups, Society makes custom, and try to make everyone follow it. The path which herd follows, may not be the right path always. Its just delusion, and a bit of fear of taking risk, people just follows the path en carved by society.

Yash D Manwani said...

I agree with the blog. It would be demeaning human life by stating that a job is everything especially when seen as a source of income. The difference b/w ordinary and extraordinary comes from within. agar aapko lagta hai ki aap aam aadmi ho aur aam aadmi ki tarah hi jeena padega to aisa hi hoga. naukri ko ek rasta samajhne me koi buraai nai hai. naukri ka arth 'seva' se bhi joda ja sakta hai. kai log is seva me bhi apna astitva khoj nikaalte hain. agar unhe lagta hai ki ye seva hi unki manzil hai to wo bhi apni jagah sahi hain jab tak ve aisa hi doosron se na chaahen. har ek vyakti ko ye aazadi hai ki wo apna astitva khoj sake.

just milan ! said...

I think too much fuss was made about being in a job or having a job. Certain things are necessary in life.... air, water, clothes and so is a job. If you don't have 1, its difficult to survive. If you have 1, it is not counted as important. It has been said that gandhi etc dinn worked but they did. yes after certain period of time when they realized they can be funded, they left their jobs. But then so can anyone. There will be many problems, but then to achieve greatness that is the price to be paid.
Between, your hindi is mind boggling ! i am so jealous..... :)

Siddharth said...

@milan

By Gandhi's job I meant, that he did not work for most part of his life, and in the early days of life too he was a self practicing lawyer and did some clerical jobs etc. ( but not for too long)

And yeah, one more thing, greatness is a subjective issue, to a certain level. But I agree, one gets something return only after taking his chance.

And yeah, for Hindi, I am indebted to Jha sir, wish I could have said the similar thing for English too .. ;)