Wednesday 25 August 2010

अँधेरी रौशनी और तुम !

तुम कौन हो ? थोड़ी सी छुपती , थोडा उमड़ती !
जैसे अँधेरे में छुपकर, धूमिल रौशनी बिखेरती!!

यूँ होता है तेरे होने का एहसास, उन अँधेरी उजालो में,
कि बस घिरा और उलझा हूँ लाखों सवालों में!

तुम मेरी मंजिल तो नहीं, ना ही  तुम मेरा रास्ता हो!
पर तुम संग , यही लगे की हमारा हमेशा का वास्ता हो!!



उन डगमग , बिखरे क़दमों में , कहीं छूपी मेरी भी छाप है!
उन बोझिल सी आँखों में जो बहता है, शायद मेरा ही अभिशाप है !!

क्यूं परेशानी की रेखाएं तुम्हें घेरे हुए हैं?
ये सब तो मेरे साथी, मेरे संगी हैं!!

पर तुम अब बाहर आ रही हो!
अँधेरे को छोड़कर उजाले में समा रही हो!!

और ज्यों ज्यों तुम कदम उजाले में डाल रही हो,
मेरे ख्यालों से खुद को निकाल रही हो!



क्यों नहीं तुम इसी  अंधकार में बस जाती हो !
जहां हम कोई नहीं, पर  हमारी हस्ती हो!!

क्यूं नहीं तुम इसी अँधेरे में गुमनामी का चोला ओढती हो ?
क्यों नहीं तुम मेरे अन्धकार से खुद को जोडती हो?

मैं स्वयं , तुम्हारा अपूर्ण रूप हूँ !
मैं कोई नहीं अकेला, पर तुम संग इस सृष्टी का प्रारूप हूँ!!

पर वश नहीं मेरा तुमपर, और निकल रही हो तुम अँधेरे को चीरकर !

मेरी यातना शायद तुम्हारे ह्रदय के वेग को न डुला सके!
मेरी आशाएं, शायद तुम्हें हमारे नैसर्गिक मिलन का स्वप्न न दिखा सके!!

लो, अब तुम बस एक बीता हुआ वक़्त हो!
वो जो थी, वो खो गयी, तुम बस एक विकृत सा आसक्त हो!!

और अब मैं भी बिखरा जा रहा हूँ!
तुम बिन मेरा वजूद नहीं, बस  यूंही बह रहा हूँ !!

पर जब वापस तुम होगी उस अन्धकार में,
मैं फिर से जीवित हो जाऊंगा !!
फिर तुम कहोगी , कि मैं कौन हूँ !
और मैं भी वही सवाल दोहराऊँगा!!

1 comment:

Anonymous said...

nice one. Is it dedicated to someone?