तुम क्या हो? मासूम, नटखट, बचपन की छाया , या चतुर, चालाक , जीवन की निर्वाहिका ! तुममें हंसी रुकी भी नहीं छुपी भी नहीं| आँखों में शरारत है, कि मासूमियत ? कुछ होने या न होने के दायरे में तुम कहीं बसी हुई हो, ठहरी हुई तो नहीं, पर दूर भी नहीं|
पर तुम पागलपन की सीमा हो, यूँ जैसे कि पागलपन तुम्हें छु गया हो , और तुम उससे कहीं दूर परे रहती हो| कोई भी सीमा , किसी और दायरे की शुरुआत है, पर तुम किसी दायरे में कहाँ ? तुम तो बस घूम रही हो, कभी इस शिखर पे, कभी उस धरातल में| ये तुम्हारी चपलुता ही है, जो श्रृष्टि को तुमसे बाँधी है, या शायद तुम्हें श्रृष्टि से| पर दोनों के पास सवाल नहीं , क्यूंकि सवाल के दायरे ही तो तुम्हारी ख़ुशी की शुरुआत हैं, शायाद हमारी ख़ुशी के भी|
रास्ते में ,किनारे पर बैठे यादों के मुंडेर पे कोई दिखता है ,पहचाना सा, पर एक झलक में विलुप्त हो जाता है | और रह जाते हैं बस हम|
उन्ही बातों के साथ| दायें - बायें,इधर - उधर,अनभिज्ञ दिशाओं में| पर चलते- चलते,भागते - भागते,कदम एक मुकाम पे आके स्थूल हो जाते हैं,मानो इसके आगे की दिशा उनकी सोच से परे हो| और तब -तब हम सोचते हैं कि,बातें, बातें ,कहाँ गई बातें ? और कहाँ आ गए हम और तुम, मानो एक सदी का सफर तय किया हो| और तब, खामोशी, एक गहरी खामोशी, उन सारी बातों का एक दायरा बन के रुक गयी| जब मैंने उठके देखा , तो बातें तो थी नहीं ,पर तुम भी नहीं थी,सिर्फ उन बातों का जूठन मेरे होठों पे अब भी बैठा था, या शायद वो तुम्हारा था|
पर तुम पागलपन की सीमा हो, यूँ जैसे कि पागलपन तुम्हें छु गया हो , और तुम उससे कहीं दूर परे रहती हो| कोई भी सीमा , किसी और दायरे की शुरुआत है, पर तुम किसी दायरे में कहाँ ? तुम तो बस घूम रही हो, कभी इस शिखर पे, कभी उस धरातल में| ये तुम्हारी चपलुता ही है, जो श्रृष्टि को तुमसे बाँधी है, या शायद तुम्हें श्रृष्टि से| पर दोनों के पास सवाल नहीं , क्यूंकि सवाल के दायरे ही तो तुम्हारी ख़ुशी की शुरुआत हैं, शायाद हमारी ख़ुशी के भी|
......
मत समझो ,
बस सुनो ,
एहसास करो,
इन बातों का|
बातों का कोई मतलब नहीं,
मतलब तो बस हमारी सोच का है |
जब बातें सोच के परे हों
तो बस बातें हैं |
न सही, न गलत
बस बातें| भोली मासूम बातें, शरारती नटखट बातें| हाँ, तुम और तुम्हारी बातें एक ही हैं| तुम्हारी चपलुता , और बातों की राहें एक ही हैं|फर्क तो बस मन का है, जो कभी जस देखता है तो कभी तस| बातें , जो कहीं भी शुरू हो जाती हैं, और कहीं भी थम जाती हैं|किसी भी गली में मुड़ जाती हैं , और हम तुम उन उच्च्श्रीन्ख्ल नदियों में , बहते रहते हैं|
रास्ते में ,किनारे पर बैठे यादों के मुंडेर पे कोई दिखता है ,पहचाना सा, पर एक झलक में विलुप्त हो जाता है | और रह जाते हैं बस हम|
उन्ही बातों के साथ| दायें - बायें,इधर - उधर,अनभिज्ञ दिशाओं में| पर चलते- चलते,भागते - भागते,कदम एक मुकाम पे आके स्थूल हो जाते हैं,मानो इसके आगे की दिशा उनकी सोच से परे हो| और तब -तब हम सोचते हैं कि,बातें, बातें ,कहाँ गई बातें ? और कहाँ आ गए हम और तुम, मानो एक सदी का सफर तय किया हो| और तब, खामोशी, एक गहरी खामोशी, उन सारी बातों का एक दायरा बन के रुक गयी| जब मैंने उठके देखा , तो बातें तो थी नहीं ,पर तुम भी नहीं थी,सिर्फ उन बातों का जूठन मेरे होठों पे अब भी बैठा था, या शायद वो तुम्हारा था|
1 comment:
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