रात के कुछ पल बीते ही थे कि सुबह की दस्तक आ गयी,
आँखों में कटी या साँसों में , रात तो सुबह में घुल गयी |
पर अब तक रात खामोश सी थी , सुबह का शोर सुनने को,
ये रात मदहोश ही थी, सुबह तक होश होने को|
सुबह पर सब कुछ है, सवेरा मन का भी, सिर्फ रौशनी का ही नहीं|
ज्यूं रात बदल गयी है , सुबह में,
में भी बदल जाऊँगा अगले पल में|
ये रात सुबह को बुलाती रहेगी, और सुबह दौड़ी चली आएगी,
पर कब तक सुबह , रात के अंत में समाएगी|
बस अब रात या सुबह नहीं रही,
जो रहा गया है , वो बस मन का ही |
अब चाहे इस पार देखो उस पार, ज्यूं ये चलता है ,
ये चलता ही रहेगा हर बार |
जब ख़्वाबों में बीती थी रातें , तो लगा की जागना ही मेरी नींद है,
अब जब सोचते ही गुजर गयी रात, तो उजाले में सोती एक नींद है|
चलता रहूँ, नींद और होश के दायरे में,
खोता और पता रहूँ, इसी दायरे में|
हाँ इन्ही दायरों में कहीं मुझे जाना है, वहां जहां कोई दायरा नहीं,
पर गर न भी पहुंचा, तो घुल जाऊँगा इसी रात में,
ये जानकर की रात भी तो सुबह का ही आगाज़ है|
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